अब मैं जहां भी जाती हूँ अपने साथ किताब लेके जाती हूँ जो भी पढ़ रही होती हूँ...उस से मुझे अकेला मेहसूस नहीं होता...
Tuesday, June 11, 2019
अन्दर जाने क्यूँ एक ज्वाला मुखी सा उबलता सा रहता है...लगता है शांत हो गया है पर जैसे ही कहीं से चिंगारी उड़ के आ जाती है फिर उबलना शुरू कर देता है......बहुत आवाज़ करके फटना चाहता है पर कोई ऐसा होने नहीं देता सब उसके ऊपर ढक्कन रख देते हैं और अंदर ही अंदर उबल उबल के सूख जाता है....काला हो जाता है.. अंदर निशान बन जातें हैं जो जूने से साफ़ करने से भी नहीं जाते...
मैंने उसका इंतज़ार किया, बहुत इंतज़ार और उस इंतज़ार के दौरान मेरी दर्द से दोस्ती हुई और ऐसी दोस्ती हुई कि उसके आने के बाद दर्द से दोस्ती तोड़ने का दर्द मेहसूस नहीं करना चाहती थी..या शायद उसके इंतज़ार से ज़्यादा मुझे दर्द ने सुकून देना शुरू कर दिया था..
उस दर्द से जुड़े रहने से मेरे अंदर का वो हिस्सा उभरने लगा था जो मैंने कभी नहीं देखा था और वो हिस्सा मुझे पसंद आने लगा था...
उसके वापिस आने की खुशी थी पर साथ में एक बेचैनी थी और खयाल आने लगे कहीं वो हिस्सा वापिस छिप तो नहीं जाएगा...कहीं खो तो नहीं जाएगा....
उस दर्द से जुड़े रहने से मेरे अंदर का वो हिस्सा उभरने लगा था जो मैंने कभी नहीं देखा था और वो हिस्सा मुझे पसंद आने लगा था...
उसके वापिस आने की खुशी थी पर साथ में एक बेचैनी थी और खयाल आने लगे कहीं वो हिस्सा वापिस छिप तो नहीं जाएगा...कहीं खो तो नहीं जाएगा....
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